नई दिल्ली। आज जिस व्यक्तित्व की हम बात करने जा रहे हैं वो कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। अपनी मेहनत के दम पर सफलता की बुलंदियों को हासिल करने वाले, विकट परिस्थितियों में भी हार ना मानने वाले, होटल व्यवसाय के क्षेत्र में देश के जाने माने औद्योगिक घराने ओबरॉय ग्रुप के संस्थापक और चेयरमैन राय बहादुर मोहन सिंह ओबरॉय आज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि इस प्रसिद्ध औद्योगिक घराने की नींव रखने वाले ओबरॉय ने अपना करियर महज 50 रुपये की मामूली पगार पर शुरू किया था।
मोहन सिंह ओबरॉय का जन्म वर्तमान पाकिस्तान के झेलम जिले के भनाउ गाँव में एक सिख परिवार में हुआ था। एक बेहद ही गरीब परिवार में जन्में ओबरॉय के लिए जिंदगी की परीक्षा बचपन में ही शुरू हो गई थी। जन्म के 6 महीने के भीतर ही उनके सर से पिता का साया उठ गया और पूरे परिवार की जिम्मेदारी माँ के कंधे पर आ गई। उन्होंने परिस्थितियों से लड़ना सीखते हुए अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव भनाउ से पूरी की और उसके बाद आगे की शिक्षा के लिए रावलपिंडी का रुख किया। किसी तरह सरकारी कॉलेज से पढ़ाई पूरी करने के बाद जब रोजगार के अवसर तलाश करने का मौका आया तो उन्हें हर तरफ निराशा ही हाथ लगी।
इस निराशा ने उन्हें सोचने पर विवश कर दिया कि “केवल शिक्षा प्राप्त कर लेने पर भी आप रोजगार के योग्य नहीं बन जाते हो।”
काफी वक़्त और धन खर्च हो जाने के बावजूद भी जब उन्हें कोई रोजगार नहीं मिला तो उन्होंने एक मित्र के सुझाव पर अमृतसर आकर टाइपिंग का कोर्स शुरू कर दिए। लेकिन कुछ ही समय बाद उन्हें ज्ञात हो गया कि इस क्षेत्र में भी उनके लिए कोई रोजगार उपलब्ध नहीं है। इस हताशा के दौर में उन्होंने पुनः अपने गाँव लौटने का निश्चय किया क्योंकि बड़े शहर में रहना बहुत अधिक खर्चीला था। गाँव लौटने के कुछ समय बाद ही उनके चाचा द्वारा उन्हें लाहौर में एक जूते निर्माण करने वाले कारखाने में जूतों को बनाने और बेचने का काम दिलवा दिया गया। परन्तु बुरे समय ने वहाँ भी मोहन का पीछा नही छोड़ा था। समय की करामात कहें या मोहन की बदक़िस्मती कुछ ही समय में वह जूतों का कारखाना भी बन्द हो गया। निराश होकर उन्हें एक बार फिर गांव की ओर ही रुख करना पड़ा। सामाजिक दबाव के चलते उनका विवाह उन्हीं के गाँव के कलकत्ता में बसे एक परिवार में करा दिया गया।
मोहन सिंह ओबरॉय बड़े ही मज़ाकिया अंदाज़ में कहते हैं “उस समय मेरे पास ना धन था ना नौकरी और ना ही मेरे पास मित्र थे शायद मेरे ससुर जी को केवल मेरा आकर्षक व्यक्तित्व ही भा गया था।”
विवाह के बाद उनका अधिकतर समय अपने ससुराल सर्गोंधा में बीतने लगा कुछ समय वहाँ बिताने के बाद जब वे अपने गाँव लौटे तो उन्हें पता लगा सम्पूर्ण गाँव में प्लेग की महामारी फ़ैल रही है। कई लोगों को इस महामारी के चलते अपने जीवन से हाथ धोना पड़ गया था। उस समय मोहन सिंह की माँ ने उन्हें सख्त आदेश दिया कि उन्हें पुनः सर्गोंधा लौट जाना चाहिए और वहीं रहकर कुछ करना चाहिए। तनाव और अवसाद की इस विकट स्थिति में मोहन सिंह स्वयं को हारा हुआ अनुभव कर रहे थे, वे पुनः एक अनिश्चित भविष्य की तलाश में सर्गोंधा लौट आये।
अपनी इस निराशा भरी परिस्तिथियों को याद करते हुए मोहन सिंह ओबेरॉय बताते हैं कि “एक दिन दैनिक अखबार के विज्ञापन पर मेरी नज़र पड़ी तो देखा कि एक सरकारी महकमे में जूनियर क्लर्क की सीट रिक्त है बस फिर क्या माँ के दिए 25 रुपये जेब में थे और मै निकल पड़ा शिमला की ओर क्लर्क की परीक्षा में बिना किसी पूर्व तैयारी के भाग्य आजमाने।“
शिमला की खूबसूरती में टहलते हुए इनकी नजऱ कई सरकारी इमारतों पर पड़ी जो कि अंग्रेजी हुकूमत का परिदृश्य बयां कर रही थी। शिमला उस समय ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी इसलिए सभी उच्च पदाधिकारियों के आगमन का भी समय था। कुछ समय शिमला में रहते हुए वहाँ घूमते-घूमते एक दिन अचानक उनकी नज़र शिमला में भारत के प्रतिष्टित होटलों में से एक सिसिल पर गयी जो अपनी सुविधाओं और अपने उच्चस्तर के लिए प्रसिद्ध था। मोहन सिंह कहते हैं “असमंजस की उस स्थिति में संकोच के साथ मैंने उस होटल में कदम रखा और अंदर जाकर होटल के मैनेजर से मिला जो कि बहुत कुशल व्यक्ति जान पड़ते थे। मैं बहुत ही कठिनायों को पार करते हुए वहां दाखिल हुआ था इसलिए मैंने मैनेजर से नौकरी के लिए सीधे पूछना ही उचित समझा और वही समय था जब मेरी किस्मत ने एक सकारात्मक मोड़ लिया“
होटल के मैनेजर डी.वी. जॉर्ज द्वारा उन्हें बिलिंग क्लर्क के पद पर 40 रुपये महीने की तनख्वाह पर रखा गया और कुछ समय पश्चात उनकी तनख्वाह को बढ़ा कर 50 रुपये महीना कर दिया गया। कुछ ही समय में मोहन सिंह के निवेदन पर उन्हें एक आवासीय घर भी मिल गया, जहाँ उन्होंने अपनी पत्नी संग रहने का निश्चय किया। होटल में नौकरी ग्रहण करने के शीघ्र बाद ही होटल के प्रबंधन में महत्वपूर्ण तब्दीली आई। इनके स्टेनोग्राफी के ज्ञान के कारण इन्हें कैशियर तथा स्टेनोग्राफर दोनों का पदभार मिल गया।
नंगे पाँव जेब में 25 रुपये लेकर मार्मिक परिस्थितियों में शिमला आने वाले इस व्यक्ति के लिए यह पदोन्नति बहुत अधिक ख़ुशी देने वाली थी। अपनी कड़ी मेहनत के दम पर उन्होंने ब्रिटिश हुक्मरानों के दिलों में एक खास जगह बना ली। समय अपनी गति से गुजरता गया और कुछ वक्त बाद जब सिसिल होटल के मैनेजर क्लार्क ने महज 25,000 रुपये में मोहन सिंह ओबेरॉय को होटल बेचने का प्रस्ताव रखा तो मोहन सिंह की ख़ुशी का ठिकाना ना रहा। उन्होंने 25,000 रुपये की राशि का प्रबंध करने के लिए कुछ वक्त मांगा। राशि जुटाने के लिए उन्हें अपनी पैतृक संपत्ति तथा पत्नी के जेवरात तक गिरवी रखने पड़े और उन्होंने पांच साल की अवधि में सारी राशि होटल मालिक को लौटा दी। इस तरह 14 अगस्त 1934 को होटल सिसिल पर मोहन सिंह का मालिकाना हक़ हो गया।
मोहन सिंह ओबेरॉय ने फिर भी मेहनत करना नहीं छोड़ा। यही कारण था कि होटल व्यवसाय के क्षेत्र में उनका नाम निरंतर बुलंदियों को छुता रहा। साल 1934 में उन्होंने ओबेरॉय ग्रुप की स्थापना की, जिसमें 30 होटल और पांच बहुसुविधा सम्पन्न होटल शामिल थे, जो आज विश्व के 6 देशों में अपनी अलग पहचान रखते हैं। मोहन सिंह ओबरॉय ने ज़मीन से आसमां तक का सफर केवल अपने दम पर तय किया है।
होटल इंडस्ट्रीज में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखने वाले मोहन सिंह ओबरॉय की जीवन यात्रा एक छोटे से गाँव से प्रारम्भ होकर आज वैश्विक पटल पर अपना परचम लहरा रही है। इनकी सफलता उन तमाम लोगों के लिए एक मजबूत प्रेरणास्रोत है जो परिस्थितियों के तले दबकर हार मान बैठते हैं।