मगध के कलाकार मिथिला में आकर मचाते हैं धमाल

बेगूसराय। बदलते परिवेश में लोग आधुनिक होते जा रहे हैं। अपनी पुरातन लोक कला, लोक नृत्य और लोक गायन को भूल रहे हैं। बावजूद इसके ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी ये तीनों अपनी पहचान बनाए हुए हैं। इसका नमूना दिखता है सिमरिया गंगा धाम में। जहां मिथिला और मगध से मुंडन संस्कार कराने के लिए आने वाले लोग आज भी अपने साथ मोर-मोरनी और कटघोरवा नाच पार्टी लेकर आते हैं। इन नृत्यों के साथ गंगा तट पर गूंजते लोकगीत खुद-ब-खुद हमारी भारतीय सभ्यता और संस्कृति को बयां करते है। वहीं महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले लोकगीत भी वर्तमान परिवेश को परिलक्षित करते हैं। कहते हैं जनमानस में रचे-बसे गीत और नृत्य सिर्फ नाच-गान नहीं होते हैं, बल्कि यह जीवनदर्शन हैं। इसमें हमारी संस्कृति का सौंदर्य छिपा होता है।

लोकगीतों की खासियत है कि उसमें आपकी परंपराएं, रीति-रिवाज, रहन-सहन, खान-पान का समावेश भी दिखता है। मोर-मोरनी के संग जब लोग डांस करते हैं तो घाट पर अनुपम नजारा छा जाता है। पूर्व के समय में यह बहुतायत में होते थे तो गांव गांव में नाच होता था। लेकिन अब यह कला डीजे और आरकेस्ट्रा के कारण विलुप्त होने की कगार पर है। बावजूद इसके मगध के लोग मिथिला में आकर अपने इस लोक नृत्य की छटा बिखेरते रहते हैं।

शेखुपुरा के अरियरी से आए राधेश्याम मंडल कहते हैं कि लोक नृत्य और लोक गायिकी हमारी संस्कृति, परंपरा की पहचान है। इसे जिंदा रखना और लगातार आगे बढ़ाना हमारा कर्तव्य है। हमारा परिवेश हमेशा ही लोकरस के आनंद में डूबा रहा है। हमारी ग्राम संस्कृति में गीत गायन और नृत्य महिलाओं के मनोरंजन और मनोभावों को दर्शाने का सबसे सशक्त माध्यम रहा है। चाहे बच्चों के जन्म पर हो या मांगलिक प्रसंग की खुशी में इससे हम अपनी माटी की महक महसूस कर सकते हैं।

उधर, मोर बने शंकर और मोरनी बने प्रजापति बताते हैं कि हमारी मांग कम हो गई है। जिसके कारण कला के साधक भी कम हो गए हैं। बावजूद इसके हम अपनी इस लोक नृत्य को अक्षुण्ण बनाए हुए हैं।

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