भारत में सबसे प्रिय और व्यापक रूप से मनाए जाने वाले त्योहारों में से एक है होली। रंग-उमंग और भाईचारे के शानदार पर्व होली को लेकर लोगों में उत्साह दिखने लगा है। महिलाओं और बच्चों को तो इस दिन का बेसब्री से इंतजार रहता है। होली में अब मात्र दो दिन बच गए हैं, इसलिए तैयारी तेज हो गई है। सात मार्च को होलिका दहन एवं आठ मार्च को रंग उत्सव मनाया जाएगा लेकिन होली के द्विअर्थी गानों, डीजे और मोबाइल के शोर में ढोलक, झाल और मजीरा पर होने वाला सारा..रा..रा..कहीं गुम हो गया है।
बुजुर्ग बताते हैं कि पूरी दुनिया को अनेकता में एकता का संदेश देने वाला हमारा देश में त्योहार, व्रत एवं परंपराएं यहां के जीवंत सभ्यता और संस्कृति का आईना है। देश की अनेकता में एकता प्रदर्शित होने के पीछे हमारी समृद्ध परंपराओं और पर्वों का योगदान है, गांवों में इन परंपराओं को लोग भली भांति निभाते थे।
हुरियारों की टोली गांव से गायब हो गई। पुराने हुरियारों को गांव के फागुन में आया बदलाव मन को कचोट रहा है। बुजुर्गों का कहना है कि हमारे समय में होली सिर्फ रंग और उमंग नहीं, सामाजिक सद्भाव और लोक गीतों के माध्यम से लोक कला का जीवंत उदाहरण था। पहले से हो रही झंकार के बीच होली के दिन जोगीरा की धुन पर जब जानी (नर्तकी बने पुरुष) के पैर थिरकते थे तो पूरा गांव-समाज झूम उठता था। भंग की तरंग में लोग झूमते रहते थे, बड़े-बुजुर्गों से घर-घर जाकर आशीर्वाद लिया जाता था। कुसुम के फूल से घर में ही रंग बनाए जाते थे, यह पक्का रंग प्यार का भी प्रतीक होता था।
बुजुर्गों का कहना है कि आज के लोग फगुआ की तरफ आकर्षित नहीं हैं। उसका कारण गांव में गोलबंदी के साथ-साथ फिल्मी, भोजपुरी गानों का प्रभाव है। एक-दूसरे के साथ बैठना पसंद नहीं कर रहे हैं। इसलिए यह परंपरा समाप्त होती जा रही है। हम लोग तुलसी, छोटकुन, जगन्नाथ, रंगपाल के लिखे फगुआ गाते थे। जो भक्तिपूर्ण होने के साथ आनंददायक भी होते थे। लेकिन अब डीजे का कानफोड़ू शोर फगुआ पर हावी हो गया है।