नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश में 1980 का वह दौर था, जब समाजवादी विचारधारा की राजनीति कांग्रेस को उखाड़कर नई राजनीतिक मैदान तैयार कर रही थी। यह वहीं समय था जब साइकिल पर सवार होकर पहलवानी और मास्टरी करने वाला सैफई का एक छोटे से कद का व्यक्ति यूपी की राजनीति में मजबूत पकड़ बना रहा था।
मंडल कमीशन और राममंदिर आंदोलन चरम पर था। मुख्यमंत्री रहते अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलाई गई, तब से विरोधियों ने मुलायम सिंह का नाम मुल्ला मुलायम रख दिया।
विरोधियों का दिया यही नाम मुलायम सिंह की असली ताकत बन गई। इस नाम के सहारे उभरा एमवाई समीकरण ने सूबे में समाजवादी पार्टी की जमीन को और मजबूत बना दिया।
1992 में बाबरी मस्जिद गिरने के साथ ही कल्याण सिंह की सरकार भी गिर गई। उसके बाद बने सियासी समीकरण में कांशीराम के कंधे पर सवार होकर मुलायम सिंह फिर से प्रदेश की सत्ता पर काबिज हो गए। मुलायम सिंह यादव दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। उसके बाद बेटे अखिलेश यादव 2012 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।
.धीरे-धीरे अमर सिंह के मैनेजमेंट के आगे लोहिया, मोहन सिंह, जनेश्वर मिश्र के नाम नैपथ्य में चले गए। मुस्लिम-यादव के वोट बैंक पर खड़ी हुई समाजवादी पार्टी परिवार की पार्टी बन कर रह गई।
सैफई के मुलायम सिंह के परिवार का कुनबा भारतीय राजनीति में बढ़ता चला गया। लोहिया का समाजवाद अब मुलायम का परिवारवाद कहलाने लगा।
लेकिन रक्षामंत्री रहते हुए शहीदों के शवों को वापस अंतिम संस्कार के लिए घरों तक लाने का फैसला मिसाल बन गया।
मुलायम के दुनिया से जाने के समय उनका कुनबा लड़ाई में उलझा है। सच यही है कि न राजनीति शाश्वत है, न हीं सत्ता, न नहीं कुर्सी, न हीं शक्ति।

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