कोरोना संकट की वजह से देश के खजाने की हालत दयनीय हो गई है, इसलिए सरकार ने बजट में यह ऐलान किया है कि वित्त वर्ष 2021-22 में करीब 12 लाख करोड़ रुपये का कर्ज लिया जाएगा. मौजूदा साल यानी 2020-21 में भी सरकार को करीब इतना ही कर्ज लेना पड़ा है. आइए जानते हैं कि सरकार कर्ज किस तरह से लेती है?

कर्ज की वजह से ही मौजूदा वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटा रिकॉर्ड 9.5 फीसदी होगा और यह अगले साल 6.8 फीसदी होगा. सितंबर 2020 तक भारत का कुल पब्लिक डेट यानी सार्वजनिक कर्ज 1,07,04,293.66 करोड़ (107.04 लाख करोड़) रुपये तक पहुंच गया. जो कि जीडीपी के करीब 68 फीसदी के बराबर है.

इसमें आंतरिक कर्ज 97.46 लाख करोड़ और बाह्य कर्ज 6.30 लाख करोड़ रुपये का था. यही नहीं वित्त मंत्रालय के आर्थ‍िक मामलों के विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले दस साल में कर्ज-जीडीपी अनुपात 67 से 68 फीसदी के बीच रहा है. पब्लिक डेट में केंद्र और राज्य सरकारों की कुल देनदारी आती है जिसका भुगतान सरकार के समेकित फंड से किया जाता है.
क्यों लेती है सरकार कर्ज

असल में सरकार का खर्च हमेशा उसकी आय से ज्यादा होता है. हर साल की परिस्थ‍ितियों के मुताबिक सरकार को श‍िक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे जैसे कल्याण और विकास कार्यों पर भारी रकम खर्च करनी पड़ती है. इसलिए सरकार को उधार लेना पड़ता है.

सरकार दो तरह से लोन लेती है इंटर्नल या एक्सटर्नल. यानी भीतरी कर्ज जो देश के भीतर से होता है और बाहरी कर्ज जो देश के बाहर से लिया जाता है.

आंतरिक कर्ज बैंकों, बीमा कंपनियों, रिजर्व बैंक, कॉरपोरेट कंपनियों, म्यूचुअल फंडों आदि से लिया जाता है. बाह्य या बाहरी कर्ज मित्र देशों, आईएफएम विश्व बैंक जैसी संस्थाओं, एनआरआई आदि से लिया जाता है. विदेशी कर्ज का बढ़ना इसलिए अच्छा नहीं माना जाता, क्योंकि इसके लिए सरकार को अमेरिकी डॉलर या अन्य विदेशी मुद्रा में चुकाना पड़ता है.

विश्व बैंक के अनुसार अगर किसी देश में बाहरी कर्ज यानी विदेशी कर्ज उसके जीडीपी के 77 फीसदी से ज्यादा हो जाए तो उस देश को आगे चलकर बहुत मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है. ऐसा होने पर किसी देश की जीडीपी 1.7 फीसदी तक गिर जाती है.

देश की बात करें तो सरकार आमतौर पर सरकारी प्रतिभूतियों यानी सिक्यूरिटीज (G-Secs) के द्वारा कर्ज लेती है. मार्केट स्टेबिलाइजेशन बॉन्ड, ट्रेजरी बिल, स्पेशल सिक्योरिटीज, गोल्ड बॉन्ड, स्माल सेविंग स्कीम, कैश मैनेजमेंट बिल आदि के द्वारा जो भी पैसा आता है, वह सरकार के लिए एक कर्ज ही होता है.

जब कोई किसी जी-सेक या सरकारी बॉन्ड में निवेश करता है तो वह एक तरह से सरकार को कर्ज दे रहा होता है. सरकार एक निश्चित समय के बाद यह कर्ज लौटाती है और एक निश्चित ब्याज देती है. सरकार सड़कें, स्कूल आदि बनाने के लिए अक्सर ऐसे G-Secs जारी करती है.

जो G-Secs एक साल से कम परिपक्वता अवध‍ि वाले होते हैं उन्हें ट्रेजरी बिल (T-bills) कहते हैं. एक साल से ज्यादा के G-Secs को सरकारी बॉन्ड कहा जाता है. इसके अलावा राज्य सरकारें केवल बॉन्ड जारी कर सकती हैं जिन्हें स्टेट डेवलपमेंट लोन्स (SDLs) कहा जाता है.

सरकार काफी पहले से ऐसे ट्रेजरी बिल या बॉन्ड जारी करने की डेट बता देती है. आमतौर ऐसी सरकारी प्रतिभूतियों में बैंक, बीमा कंपनियां, वित्तीय संस्थान, म्यूचुअल फंड, पेंशन फंड आदि संस्थागत निवेशक निवेश करते हैं. साल 2001 से इसमें आम निवेशकों यानी सभी लोगों को निवेश करने का अध‍िकार दिया गया, लेकिन आम निवेशकों के लिए सिर्फ 5 फीसदी हिस्सा मिलता है. यानी यदि कोई जी-सेक 100 करोड़ रुपये का है तो सिर्फ 5 करोड़ रुपये आम जनता से लिए जाएंगे.
सरकार देश के भीतर से भी कर्ज लेती है

कैसे कर सकते हैं निवेश

कोई भी निवेशक जिसके पास डीमैट एकाउंट हो या रिजर्व बैंक में उसका निवेशक के रूप में रजिस्ट्रेशन हो वह इन सिक्योरिटीज में निवेश कर सकता है. इनमें एफडी की तरह एक निश्चित रिटर्न मिलता है. ट्रेजरी बिल में रिटर्न का तरीका थोड़ा अलग होता है. उन्हें जीरो कूपन बॉन्ड कहते हैं. ये पहले ही डिस्काउंट रेट पर जारी किए जाते हैं और मैच्योर होने पर इनकी पूरी कीमत यानी फेस वैल्यू दी जाती है.

इसके अलावा कुछ उधार ऐसा होता है जिसे ऑफ बजट कहते हैं, ये सीधे केंद्र सरकार नहीं लेती, इसलिए इसका असर राजकोषीय घाटे में नहीं दिखाया जाता. इसकी बजट में चर्चा नहीं होती.

ये कुछ सार्वजनिक कंपनियों, सरकारी संस्थाओं के लोन या डेफर्ड पेमेंट के रूप में होते हैं. ऐसा माना जाता है कि ये लोन संस्थान सरकार के निर्देश पर ही लेते हैं, लेकिन इसे चुकाने की जवाबदेही सरकार पर नहीं होती इसलिए इसे बजट में शामिल नहीं किया जाता.

उदाहरण के लिए इस साल सरकार ने राशन बांटने में फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडि‍या का जो सब्सिडी बिल है उसका आधा ही आवंटित किया है, बाकी पैसा उसे नेशनल स्मॉल सेविंग फंड्स से उधार लेने को कहा गया है. इसी तरह फर्टिलाइजर सब्सिडी के लिए कुछ हिस्सा सरकारी बैंकों से लोन के रूप में दिलाया गया.

क्या फर्क पड़ता है

जब केंद्र या राज्य सरकारों का कर्ज सीमा से बाहर जाता है तो रेटिंग एजेंसियां सरकार या राज्य सरकार की रेटिंग घटा देती हैं. इससे विदेशी निवेशक एफडीआई के रूप में निवेश से हिचकते हैं और कंपनियों के लिए भी कर्ज महंगा हो जाता है.

असल में सरकार जब सभी संस्थाओं से कर्ज लेने लगती है तो कॉरपोरेट कंपनियों के लिए उधार के लिए पैसा कम बचता है या महंगा मिलता है. सरकार की उधारी पर सबकी नजर होती है, क्योंकि इसके बाद सभी कॉरपोरेट बॉन्ड या अन्य ब्याज दरें सरकारी ब्याज दर से ज्यादा ही रखी जाती हैं. यानी सरकारी बॉन्ड की ब्याज दर अगर बढ़ती है तो इसका मतलब यह है कि बाकी के लिए कर्ज और महंगा हो जाएगा.

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