खूंटी। झारखंड के जनजातियों और मूलवासियों के शिव उपासना का सबसे बड़ा त्योहार मण्डा चैत्र शुक्ल पक्ष आते ही शुरू हो जाता है। कहा भी कहा गया है कि अस्माकं झारखंड प्रदेश एक महत्वपूर्ण पर्व मण्डा अति अस्ति। अस्मिन पर्वणि जना: विविधिरूपै: शिवम आराध्यंति।

मंडा ही एक एक ऐसा पर्व है, जिसे जनजातीय समाज और मूलवासी सदान एकसाथ और समान भक्तिभाव से मनाते हैं। यह पर्व झारखंड के आदिवासियों और मूलवासी सदानों के अन्योन्याश्रय संबंध को और दृढ़ करता है। शिवोपसना का पर्व मंडा के लिए न तो कोई प्रचार-प्रसार किया जाता है और न ही किसी को इसकी खबर दी जाती है। एक नीयत तिथि पर सभी शिव भक्त किसी शिवालय में पहुंच जाते हैं और भगवान भोलेनाथ की आराधना में लीन हो जाते हैं। अलग-अलग गांवों में अलग-अलग तिथियों में मंडा अनुष्ठान का आयोजन किया जाता है।
शिवोपासना के दिन भी अलग-अलग

गांवों के अनुसार शिवोपासना के दिन भी अलग-अलग होते हैं। किसी गांव में 11 दिनों का उपवास होता है, तो कहीं तीन या चार दिनों का। मंडा अनुष्ठान में शामिल होने की सबसे बड़ी शर्त होती है कि शिव भक्त जिसे स्थानीय भाषा में भगता या भोक्ता कहा जाता है, को अनुष्ठान पूर्ण होने तक अपने घर-बार का त्याग कर शिवालय में रहना पड़ता है और सिर्फ रात में ही बिना नमक का भोजन या फलाहार करना पड़ता है।
मुख्य अनुष्ठान के दिन तो भोक्ता को निर्जला उपवास में रहना पड़ता है। अनुष्ठान शुरू होने के पूर्व ही भोक्ता के घरों में सात्विक भोजन शुरू हो जाता है। प्याज, लहसून, मांस-मदिरा पर पूर्ण प्रतिबंध लग जाता है। अनुष्ठान के दौरान भोक्ता शिव पाट को लेकर अलग-अलग दिनों में गांवों में नाचते-गाते और भोलेनाथ का जयकारा लगाते पहुंचते हैं, जहां हर परिवार द्वारा शिव पाट और झंडे की पूजा की जाती है। भोक्ताओं के प्रमुख को पट भोक्ता कहा जाता है। उसी के दिशा निर्देश पर सभी अनुष्ठान किये जाते हैं। इस पर्व की सबसे बड़ी खासियत है कि यहां न कोई पंडित पुजारी होता और न ही कोई मंत्रोच्चार होता है। सारे धार्मिक अनुष्ठान पटभोक्ता के निर्देश पर किये जाते हैं और पट भोक्ता कोई वरिष्ठ भोक्ता बन सकता है, चाहे वह किसी भी जाति या समाज का हो।

कई कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है भोक्ता को

मंडा शिव उपासना का सबसे कठिन पर्व माना जाता है। कई दिनों तक भोक्ता को कड़ी परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। भोक्ता को दिन में कई बार स्नान करना पड़ता है। भोक्ता को लकड़ी के खंभे के सहारे आग के ऊपर उल्टा लटकाकर झुलाया जाता है। इस अनुष्ठान को धुआं-सुआं कहा जाता है। बाद में उसे नंगे बदन बड़े-बड़े कांटों में फेंका जाता है। इन दोनों अनुष्ठान के पूरा के बाद भोक्ता को नंगे पांव अंगारों में चलाया जाता है। इसे फुलखुंदी कहा जाता है। इस दिन भोक्ता के परिवार की महिलाएं और पुरुष व्रत धारण कर मंडा स्थल में रात गुजारते हैं। फुलखुंदी अनुष्ठान के बाद भोक्ता को शर्बत दिया जाता है।

सुबह में भोक्ताओं को लकड़ी से बने एक विशाल झूलन में झुलाया जाता है जिसे झूलन अनुष्ठान कहते हैं। झुलने के दौरान भोक्ता ढेर सारा फूल अपने पास रखता है, जिसे वह नीचे फेंकता जाता है। इन फूलों को पाने के लिए गांव के लोगों में होड़ मची रहती है। मान्यता है कि इन फूलों को घरों में रखने से सुख-समृद्धि आती है। झूलन अनुष्ठान के साथ ही मंडा पर्व का समापन हो जाता है और भोक्ता पुन: अपने घर लौट जाता है। पंचपरगना क्षेत्र में मंडा को चड़क पूजा कहा जाता है। वहां तो भोक्तओं के शरीर, गाल और जीभ में लोहे के कील औ तीर तक चुभाये जाते हैं।
मंडा पर्व ने जनजातीय समाज को बचाये रखा है धर्मांतरण से
मंडा झारखंड में न केवल भगवान भोलेनाथ की आराधना का पर्व है, बल्कि यह समाज के लोगों का एक दूसरे से मिलने का बहुत बड़ा जरिया है। जिस गांव में मंडा पर्व होता है, उस गांव में कोई ऐसा घर नहीं होता, जहां मेहमान और हित कुटुंब न आते हों। जब दूसरे गांव में मंडा लगता है, तो इस गांव के लोग वहां पहुंचते हैं। इससे आपसी संबंध के साथ ही सामााजिक समरसा भी बढ़ती है। इस परंपरा को झारखंड में बचाने का श्रेय मुख्य रूप से यहां के जनजाति समाज को जाता है। मंडा एक ऐसा त्योहार है, जो धर्मांतरण से भी जनजाति समाज को बचाये रखता है। जनजाति समाज के लोगों का कहना है कि जो आदिवासी नेता यह कहकर सरना समाज के लोगों को बरगलाते हैं कि सरना अनुयायी हिंदू नहीं हैं, उन्हें मंडा पर्व का अवलोकन करना चाहिए, उनकी विचारधारा ही बदल जायेगी।

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