—धर्मपाल सिंह।

वीर सावरकर का जन्म 28 मई, 1883 में महाराष्ट्र के नासिक जिले के भागुरगांव में हुआ  था। उनकी माता का नाम राधाबाई सावरकर और पिता दामोदर पंत सावरकर थे।

सावरकर जी चार भाई−बहन थे।वीरसावरकर न केवल स्वाधीनता संग्राम सेनानी थे अपितु वे एक महान चिंतक, लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी व्यक्तित्व के धनी राजनेता भी थे।वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे तथा उन्होंने बचपन में ही गीता के श्लोक कंठस्थ कर लिए थे।ऐसी प्रखर मेधा शक्तिवाले शिष्य के प्रति शिक्षकों का असीम स्नेह होना स्वाभाविक ही था।

उनकी प्रारंभिक शिक्षा नासिक के शिवाजी स्कूल से हुयी थी। मात्र 9 साल की उम्र में हैजा बीमारी से उनकी मां का देहांत हो गया।उसके कुछ वर्ष उपरांत उनके पिता का भी वर्ष 1899 में प्लेग की महामारी में स्वर्गवास हो गया। इसके बाद उनके बड़े भाई ने परिवार के भरण-पोषण का भार संभाला उनका पूरा नाम विनायक दामोदर सावरकर था।बचपन से ही वे पढ़ाकू थे।बचपन में उन्होंने कुछ कविताएं भी लिखी थीं।उन्होंने शिवाजी हाईस्कूल, नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की।

ब्रिटिश भारत की पहली गुप्त सोसाइटी अगर किसी ने बनाई तो वह सावरकर ने ‘मित्रमेला’ के नाम से बनाई और बाद में वही पुणे में ‘अभिनव भारत’  सोसाईटी नाम से पूरे भारत में न केवल प्रचलित हुई बल्कि इसमें देश के अन्य-अन्य राज्यों के युवा भी बड़ी संख्या में जुड़ने लगे तथा क्रांतिकारी गतिविधियों के लिये सोसाइटी से बहुत सारे कार्य किये गए।

देश में स्वदेशी का पहला आह्वान वीरसावरकर जी ने ही किया धीरे-धीरे सावरकर ने पूना के जनसमाज में अपना स्थान बना लिया था।आचार्य काका कालेलकर जैसे व्यक्ति भी उनकी सराहना करते थे।सावरकर और उनके साथियों ने स्वदेशी का प्रचार और बंगाल विभाजन का बहिष्कार करना आरम्भ कर दिया था।तिलक ने बंगाल के विभाजन का अखिल भारतीय स्तर पर विरोध करना आरम्भ किया था। अक्टूबर 1905 को पूना की विशाल जनसभा में सावरकर ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की घोषणा कर दी और कहा कि विद्यार्थी दशहरे के दिन विदेशी वस्त्रों और अन्याय विदेशी वस्तुओं की होली जलायेंगे।केलकर और परांजपे ने सावरकर के आन्दोलन का उसी सभा में जोरदार शब्दों में समर्थन किया।इस प्रकार 7 अक्टूबर को गाड़ियों में भर-भरकर विदेशी वस्तुएं एवं कपड़े एक स्थान पर लाये गये और सर्वप्रथम पूना में विदेशी वस्तुओं की होली जलाई गई।

फर्गुसन कॉलेज से स्नातक तक कि पढ़ाई पूरे करने के  बाद 1906 में तिलक जी के प्रयास उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली और वे लंदन कानून की पढ़ाई करने गए और वहां हिंदुस्तानी छात्रों में राष्ट्रवाद की अलख जगाकर 1906 में सावरकर ने”1857 का स्वतंत्रता समर”पुस्तक लिखने का संकल्प लिया। 10 मई 1907 को इस संग्राम की लंदन के इंडिया हाउस में 50वीं वर्षगांठ मनाने का निश्चय किया।इस के लिए सावरकर ने‘फ्री इंडिया सोसायटी’ के नेतृत्व में एक भव्य आयोजन की रूपरेखा बनाई।फिरंगी हुकूमत को जब इसकी भनक लगी तो उसने इस आयोजन पर अंकुश लगाने का हरसंभव प्रयास किया, किंतु सावरकर के वाक्चातुर्य के चलते अंग्रेज प्रशासन रोक नहीं पाया।इसी दिन सावरकर ने इसे तार्किक रूप में सैन्यविद्रोह अथवा गदर के रूप में खारिज किया और अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम का पहला सशस्त्र युद्ध घोषित किया।इस पहली लड़ाई को‘संग्राम’ का दर्जा देनेवाले वे पहले भारतीय थे।और एक महत्वपूर्ण बात वीरसावरकर पहले ऐसे भारतीय विद्यार्थी थे जिन्होंने इंग्लैंड के राजा के प्रतिवफादारी की शपथ लेने से मना कर दिया।फलस्वरूप उन्हें वकालत करने से रोक दिया गया।

वर्ष 1909 में मदनलाल धिंगरा, सावरकर के सहयोगी ने वायसराय, लार्ड कर्जन पर असफल हत्या के प्रयास के बाद सर विएली को गोली मार दी।उसी दौरान नासिक के तत्कालीन ब्रिटिश कलेक्टर ए.एम.टीजैक्सन की भी गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी।इस हत्या के बाद सावरकर पूरी तरह ब्रिटिश सरकार के चंगुल में फंस चुके थे।लन्दन में रहते हुये उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इण्डिया हाउस की देखरेख करते थे।1 जुलाई 1909 को मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हटकर्जनवायली को गोली मार दिये जाने के बाद उन्होंने लन्दन टाइम्स में एक लेख भी लिखा था। 13 मई 1910 को पैरिस से लन्दन पहुंचने पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया परन्तु 8 जुलाई 1910 को एसएस मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते हुए सीवर होल के रास्ते ये भाग निकले।उसी दौरान सावरकर को 13 मार्च 1910 को लंदन में कैद कर लिया गया।अदालत में उन पर गंभीर आरोप लगाये गए। 24 दिसम्बर 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी। इसके बाद 31 जनवरी 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया।इस प्रकार सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो आजीवन कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी।

सावरकर का स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान रहा।अंग्रेजों द्वारा उनके क्रूरतम उत्पीड़न का दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।उनसे अंग्रेज इतने भयभीत थे कि उन्हें कालापानी में दो आजीवन कारावास की सजा दी थी।उनके साथ अंडमान की सेलुलर जेल में हुआ जुल्म विश्व के अमानवीय जुल्मों में शुमार है।उन्हें जिस कोठरी में रखा, उसी में शौच भी करना होता था।खाने को उबले चावल का चूरा और घास व कीड़ों से युक्त सब्जी होती थी।सावरकर का मनोबल न टूटने पर उन्हें छह माह तन्हाई में, सात दिन बेड़ियों में हाथ छत से बांधकर खड़ा और दस दिन त्रिभुज के आकार के लट्ठों में पैर फैलाकर बांधकर रखा।उनसे बैल की तरह जुआ खींचकर प्रतिदिन तीस किलो तिल का तेल निकलवाया जाता।माह में अमूमन तीन कैदियों को सावरकर की नजरों के सामने फांसी देते थे। वहां पर उन्होंने कील और कोयले से कविताएं लिखीं और उनको यादकर लिया था ।दस हजार पंक्तियों की कविता को जेल से छूटने के बाद उन्होंने दोबारा लिखा।सावरकर के अनुसार– “मातृभूमि! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूं। देश-सेवा ही ईश्वर-सेवा है, यह मानकर मैं ने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की।”

2 मई 1921 में उनको रत्नागिरी जेल भेजा गया और वहां से सावरकर को यरवदा जेल भेज दिया गया। 1921 में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी।जेल में उन्होंने हिंदुत्व पर शोधग्रन्थ लिखा।रत्नागिरी जेल में उन्होंने ̔हिंदुत्व पुस्तक ̕की रचना की। वर्ष 1924 में उनको रिहाई मिली मगर रिहाई की शर्तों के अनुसार उनको न तो रत्नागिरी से बाहर जाने की अनुमति थी और न ही वह पांच साल तक कोई राजनीति कार्य कर सकते थे।रिहा होने के बाद उन्होंने 23 जनवरी 1924 को ̔रत्नागिरी हिंदूसभा’ का गठन किया और भारतीय संस्कृति और समाज कल्याण के लिए काम करना शुरू किया। उन्होंने हिंदीभाषा को देशभर में आमभाषा के रूप में अपनाने पर जोर दिया और हिन्दू धर्म में व्याप्त जाति भेद व छुआछूत को ख़त्म करने का आह्वान किया, थोड़े समय बाद सावरकर तिलक की स्वराज पार्टी में शामिल हो गए और बाद में हिंदू महासभा नाम का एक अलग संगठन बना लिया।

1937 में वीर सावरकर को हिन्दू महासभा का अध्यक्ष चुन लिया गया और वे 1943 तक इस पद पर बने रहे। उनकी अध्यक्षता में पार्टी ने हिन्दू राष्ट्र व अखंड भारत की विचारधारा को बढ़ावा दिया।महासभा ने पकिस्तान बनाए जाने का विरोध किया और उस दौरान के इतिहास को ठीक से पढ़ने पर पता चलता है भगत सिंह ,चंद्रशेखर आज़ाद व अशफ़ाक़ुल्लाखान द्वारा एक HSRA नाम का संगठन बनाया जिसमें शामिल होने की शर्त थी कि क्या आपने सावरकर द्वारा लिखित 1857 का स्वतंत्रता समर पढ़ा है तभी शामिल हो सकते हैं। तो इससे पता चलता है वीरसावरकर जी द्वारा लिखित पुस्तकों ने अनेक क्रांतिकारियों को प्रेरणा दी तथा अपनी पुस्तकों से आज़ादी की लड़ाई को एक पैनी धार देने का काम किया। वहीं सुभाषचंद्र बोस जी ने जब आज़ाद हिंदफौज की स्थापना की तो इतिहासकार बताते हैं। उनको इसकी प्रेरणा वीरसावरकर जी से मिली जहां उन्होंने रासबिहारी बोस के बारे में भी उनको जानकारी दी और आगे चलकर उनके मार्गदर्शन में 1943 में सिंगापुर में स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार का गठन किया।

1947 में भारत के बंटवारे के खिलाफ थे वीर सावरकर उन्होंने बंटबारे का पुरजोर विरोध किया क्योंकि उनका सपना अखण्ड भारत था। 26 फरवरी 1966 को वीर सावरकर जी की मृत्यु के बाद कांग्रेस की पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी जी ने कहा था कि सावरकर एक सच्चे राष्ट्रभक्त थे। प्रखर राष्ट्रवादी थे और कहा कि”सावरकर द्वारा ब्रिटिश सरकार की आज्ञा का उल्लंघन करने की हिम्मत करना हमारी आजादी की लड़ाई में अपना अलग ही स्थान रखता है।” और 1970 में सावरकर जी पर डाक टिकट जारी किया।

 लेखक: झारखंड भाजपा के संगठन महामंत्री हैं।

 

 

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