पटना। शुक्रवार की सबसे बड़ी खबर पटना हाईकोर्ट से आई है। उच्च न्यायालय ने 1999 के बिहार के चर्चित सेनारी नरसंहार कांड में निचली अदालत के फैसले को पलट दिया है। हाईकोर्ट ने नरसंहार के 13 दोषियों को तुरंत रिहा करने का आदेश दिया है।

गया जिले के बारा गांव में 12 फरवरी 1992 की रात मौत को मौत का तांडव हुआ था। इसी रात को गांव के पश्चिमी हिस्से से नक्सलियों का एक बड़ा जत्था गांव में दाखिल हुआ। लोग जब सो रहे थे तब अचानक नक्सलियों ने गांव में कोहराम मचा दिया। भूमिहार जाति बहुल इस गांव में नक्सलियों ने मां-पत्नियों और बेटियों के सामने उनके अपनों का गला रेत दिया। उस रात नक्सलियों ने दरिंदगी की हदें पार करते हुए 35 लोगों की गला रेतकर हत्या कर दी। नक्सलियों ने बीच-बचाव में आई महिलाओं को हथियार की बट से बेरहमी से पीटा था। किसी औरत ने अपनी आंख के सामने अपने सुहाग को मिटते देखा तो किसी मां के सामने उसके बेकसूर बेटे की लाश बिछा दी गई।

लोगों का आरोप है कि तत्कालीन लालू सरकार का कोई मंत्री-विधायक गांव में झांकने तक नहीं आया था। बारा गांव के लोगों में आज भी इस बात का आक्रोश है। गांव के लोग कहते हैं कि यहां के किसी शख्स का किसी दलित उत्पीड़न मामले से लेना-देना नहीं था। बारा गांव के कुछ ग्रामीणों के मुताबिक तत्कालीन लालू सरकार की सवर्ण विरोधी विचारधारा का नक्सलियों ने फायदा उठाया और इस गांव में खून की होली खेली। 29 साल बाद भी बारा गांव के जख्म हरे हैं। नरसंहार में मारे गए लोगों के आश्रितों में से सिर्फ 22 परिवारों के लोगों को नौकरी मिली। जबकि वादा सभी 35 परिवारों के लिए किया गया था।

एक और राज

इस नरसंहार से जुड़ा एक तथ्य और भी है। इस नरसंहार के दोषियों की फांसी की सजा को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने माफ कर दिया था। इस निर्णय के पीछे मुखर्जी ने व्यक्तिगत भावना के बजाय तथ्य और अपराध करने के समय आरोपितों की मनोस्थिति पर ज्यादा ध्यान दिया था। इस बात का जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘द प्रेसिडेंसियल इयर्स ‘ में किया है। उन्होंने लिखा है कि ‘मैंने एक महत्वपूर्ण केस में दया याचिका को स्वीकार किया था। वह मामला बिहार के बारा नरसंहार से जुड़ा था। फरवरी 1992 में हथियारबंद लोगों ने बिहार के गया जिले के बारा गांव में ऊंची जाति के करीब तीन दर्जन ग्रामीणों की क्रूरता से हत्या कर दी थी। एक नहर के किनारे इन लोगों को बेरहमी के साथ मार दिया गया था। उनके हाथ बंधे हुए थे, इस कांड में 36 लोग आरोपित थे। लेकिन 13 लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई थी। प्रणब मुखर्जी ने लिखा है कि मैंने पूरे मामले को विस्तार से समझा और कोर्ट की कार्यवाही व फैसले को पढ़ा। इस केस ने मुझ पर गहरा प्रभाव छोड़ा था। पर जैसा कि मैंने अन्य मामलों में किया, मेरा मानना है कि व्यक्तिगत भावनाएं, तथ्यों पर पर्दा न डाले और निर्णय को प्रभावित नहीं करे। मैंने दया याचिका स्वीकार कर ली। इन चारों दोषियों की फांसी की सजा बदल दी क्योंकि मैंने पाया कि ये हत्यारे एक अलग अपवाद स्वरूप मनोस्थिति में थे, कोर्ट का भी यह आर्ब्जवेशन था।’

क्या था निचली अदालत का फैसला

2016 में बिहार में जहानाबाद के सेनारी नरसंहार कांड की सुनवाई करते हुए जिला अदालत ने 17 साल बाद फैसला सुनाते हुए 10 दोषियों को मौत की सजा सुनाई थी। 34 लोगों के इस बहुचर्चित नरसंहार कांड के तीन दोषियों को उम्रकैद की सजा दी गई थी और उन पर एक-एक लाख रुपए जुर्माना लगाया गया था।

उस फैसले के वक्त इस केस में दो दोषी फरार भी थे। तब निचली अदाल ने फैसले में इस नरसंहार में मारे गए लोगों के परिजनों को पांच-पांच लाख रुपए मुआवजा देने का आदेश दिया था। इस केस के कुल 70 आरोपियों में से 4 की मौत हो चुकी है। 2016 में निचली अदालत पहले ही 20 आरोपियों को बरी कर चुकी थी।

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