हिमाचल प्रदेश के पालमपुर के रहने वाले कैप्टन सौरभ कालिया भारतीय सेना के वह जांबाज ऑफिसर थे, जिनकी गाथा के बिना कारगिल युद्ध की कहानी अधूरी होगी। युद्ध में इन्होंने अपने अदम्य साहस और वीरता की मिसाल कायम की।
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अगस्त 1997 में संयुक्त रक्षा सेवा परीक्षा द्वारा सौरभ कालिया का चयन भारतीय सैन्य अकादमी में हुआ और 12 दिसंबर 1998 को वे भारतीय थलसेना में कमीशन अधिकारी के रूप में नियुक्त हुए। उनकी पहली तैनाती 4 जाट रेजिमेंट (इंफेंट्री) के साथ कारगिल सेक्टर में हुई। 31 दिसंबर 1998 को जाट रेजिमेंटल सेंटर बरेली में पहुंचने के बाद वे जनवरी 1999 में कारगिल पहुंचे।

मई के पहले दो सप्ताह बीत चुके थे। अभी तक हम घुसपैठियों को लेकर सिर्फ आंकलन कर रहे थे। इस बीच कारगिल के समीप काकसर की बजरंग पोस्ट पर तैनात 4 जाट रेजिमेंट के कैप्टन सौरभ कालिया को अपने पांच साथियों सिपाही अर्जुन राम, भंवर लाल, भीखा राम, मूला राम व नरेश सिंह को क्षेत्र का मुआयना करने के लिए भेजा गया, ताकि स्थिति का सही-सही पता लग सके।

इसी बीच 15 मई को खुफिया सूचना मिली कि पाकिस्तानी घुसपैठिये भारतीय सीमा की ओर बढ़ रहे हैं। पहले तो सौरभ को लगा कि उन्हें मिला इनपुट गलत हो सकता है, लेकिन दुश्मन की हलचल ने अपने होने पर मुहर लगा दी।

वह तेजी से दुश्मन की ओर बढ़े, तभी उन पर हमला कर दिया। इस पर सौरभ ने स्थिति को समझते हुए पोजीशन ले ली। हालांकि दुश्मन पूरी तैयारी के साथ बैठा था। फिर भी उनका ज़ज्बा सभी हथियारों पर भारी पड़ रहा था। उन्होंने सबसे पहले दुश्मन की सूचना अपने आला अधिकारियों को दी। फिर अपनी टीम के साथ तय किया कि वह आखिरी सांस तक सामना करेंगे। गोलाबारी में सौरभ और उनके साथी बुरी तरह ज़ख्मी हो गये थे। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।

दुश्मन बौखला चुका था। इसलिए उसने पीठ पर वार करने की योजना बनाई। इसमें वह सफल रहा। उसने चारों तरफ से सौरभ को उनकी टीम के साथ घेर लिया। जख्मी होने के कारण वह बंदी बना लिए गए।

दुश्मन सौरभ और उनके साथियों से भारतीय सेना की खुफिया जानकारी जानना चाहता था। इसलिए उसने लगभग 22 दिनों तक अपनी हिरासत में रखा। लाख कोशिशों के बावजूद कैप्टन सौरभ ने कोई जानकारी नहीं दी। इस पर उन्हें यातनाएं दी जाने लगीं।

अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए सौरभ कालिया के कानों को गर्म लोहे की रॉड से छेदा गया। उनकी आंखें निकाल ली गईं। हड्डियां भी तोड़ दी। अन्य तरह से भी कष्ट दिए। लेकिन सौरभ का हौसला नहीं टूटा। अंत में उन्होंने सर्वोच्च बलिदान दिया।

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