नई दिल्ली। भारतीय सेना खराब मौसम और बर्फीली हवाओं के बीच विश्व के उच्चतम युद्धस्थलों में चोटी पर बैठे दुश्मन को वहीं दफन कर देने की कला में पारंगत हो चुकी है। पूर्वी लद्दाख के गलवन में विकट हालात में डटे हमारे जवान उच्च पर्वतीय इलाकों की चुनौतियों के बीच हर दुश्मन को मात देने में सक्षम हैं।
वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद 1984 में विश्व के सबसे ऊंचे युद्धस्थल सियाचिन में खून जमाने वाली ठंड में बीस हजार फीट की ऊंचाई पर कायम हुई मौजूदगी ने भारतीय वायुसेना को हाई एल्टीट्यूड माउंटेन वारफेयर में विश्व की अनुभवी सेनाओं में से एक बना दिया।
इस अनुभव का प्रदर्शन सेना ने वर्ष 1999 के कारगिल युद्ध में कर दिखाया था और चोटी पर बैठे पाकिस्तानी सैनिकों को दुर्गम चढ़ा कर ढेर कर दिया था। अब पूर्वी लद्दाख के गलवन में चीन को रोक रही भारतीय सेना को अच्छी तरह से अंदाजा है कि ऊंचाई पर बैठे दुश्मन को कैसे मात देनी है। आइए जानते हैं कि यह सब कितना मुश्किल है और कैसे हमारी सेनाएं ऐसे हालात का सामना करती हैं।
सीधी चोटियां, शून्य से नीचे की खून जमाने वाली ठंड और उस पर बर्फीली हवाएं। चौदह हजार फीट से अधिक ऊंचाई पर मैदानी इलाकों के मुकाबले 40 फीसद कम ऑक्सीजन होती है। ऐसे हालात में जिंदा रहना ही एक बड़ी चुनौती होता है और उस पर बंदूक थामकर दुश्मन को ढेर करना बिलकुल भी आसान नहीं होता। चोटी पर बैठा दुश्मन पत्थरों को भी हथियार की तरह इस्तेमाल करता है।
ऊंचाई पर पहुंच उसे खत्म करने के लिए सामान्य से अधिक सैनिकों की जरूरत रहती है। गलवन में भारतीय सेना पर हमले में भी ऊंचाई पर मौजूद चीनी सैनिकों ने पत्थर बरसाए। दुश्मन ऊंचाई से हर हरकत देख सकता है। ऐसे हालात में लड़ने के लिए सैनिकों का विशेष रूप से प्रशिक्षित होना जरूरी होता है। जवान हथियारों के साथ खाने-पीने का सामान आदि भी साथ रखते हैं। ऐसे में औसतन चढ़ाई करते समय जवान को 30-35 किलोग्राम का बोझ उठाना होता है। कम ऑक्सीजन के कारण भार उठाकर चढ़ाई करना बेहद कठिन जान पड़ता है।
कैसे की जाती है दुर्गम पहाड़ी इलाकों में लड़ने की तैयारी?
सेना अपने सैनिकों को नियमित रूप से उच्च पहाड़ी इलाकों में लड़ने के लिए तैयार करती है। कश्मीर के गुलमर्ग में नौ हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित हाई एल्टीट्यूड माउंटेन वारफेयर स्कूल में बर्फ के योद्धा तैयार किए जाते हैं। यहां पर सैनिकों को बर्फीले इलाकों में शून्य से नीचे के तापमान में लड़ने में माहिर बनाया जाता है।
उन्हें यह भी सिखाया जाता है कि सियाचिन जैसे इलाकों में हिमस्खलन और बर्फ की अन्य चुनौतियों का सामना और बचाव कैसे करना होता है। जवानों को सीधे सियाचिन की बीस हजार फीट की ऊंचाई पर नहीं भेजा जाता। पहले उन्हें सियाचिन के आधार शिविर में कुछ समय रखकर वहां के वातावरण में अनुकूलन किया जाता है, इसके बाद उन्हें सिचाचिन ग्लेशियर भेजा जाता है।