-के. एन. गोविन्दाचार्य
भारत में तीर्थयात्रा का महत्त्व है, परंपरा भी है| तीर्थयात्रा मार्ग की दुरुहता का रूप है| इसीलिये सारे तीरथ बारबार, गंगासागर एक बार ऐसी भी उक्ति है| आज से सौ वर्ष पूर्व कोई बद्री केदार की यात्रा पर गया हो तो वापसी पर भंडारा होता था, पुनर्जन्म सरीखी ख़ुशी गाँव में मनती थी| तीर्थयात्रा मे परिवार के बड़े जब जाते थे तो घर के अन्य सदस्यों को इस प्रकार संभलवाते थे मानो कि लौटना संदिग्ध हो| यह मत भूल जाना, वह जरुर याद रखना कम से कम उस बात इतना तो जरुर ध्यान रखना आदि|
संघ परिवार की ऐसी एक समझाइश बैठक हुई थी 1972 में| बैठक का स्थान था बंबई के पास थाणे में पं. पाण्डरंग शास्त्री आठवके जी के तत्वज्ञान विद्या पीठ में| बैठक मे पूरे देश से सभी विभाग प्रचारक से अ.भा. तक सभी प्रचारक एवं अ.भा. अधिकारी एवं विविध क्षेत्र के प्रदेश संगठन मंत्री स्तर के कुछ और लोग आमंत्रित थे| संघ के परम पूजनीय गुरूजी(गोलवलकर जी) के पूरी बैठक मे सहभाग, हस्तक्षेप, मार्गदर्शन आदि की भूमिका थी ! बैठक ऐसी ही ढंग से नियोजित थी मानो परिवार का मुखिया दूर की तीर्थयात्रा पर जा रहा है, घर के अन्य सदस्यों को काम संभलवा रहा हो| मैं भी उस बैठक मे एकाग्रचित्त से उपस्थित था| सहभागी भी थी| लेखन की टीम में मैं भी था| उस समय टेपरिकॉर्डिंग की व्यवस्था पर पूरा भरोसा नही हो पाता था|
उस बैठक मे जब भारतीय मजदूर संघ का विवरण और चर्चा हो रही थी तो गुरूजी ने टिपण्णी की थी कि एक भी स्वयंसेवक मनोयोग से लग जाय तो क्या चमत्कार घटित हो सकता है उसका एक उदाहरण है भारतीय मजदूर संघ| स्वयंसेवक के बारे में उनका संकेत था श्री दत्तोपंत ठेंगडी(10 नवंबर 1920 से 14 अक्टूबर 2004) की ओर| उस समय भा.म.सं. सबसे बड़ा संगठन बनने की ओर उन्मुख था|
उसी बैठक में दूसरे अवसर पर गुरूजी ने दत्तोपंत जी की ओर इशारा करते हुए कहा कि वे तो संघ के लिए भी THOUGHT GIVER हैं|
1979-80 में जब जनता पार्टी में दोहरी सदस्यता पर विवाद चला तो एक समय इस बात की भी चर्चा हुई कि जनता पार्टी मे जनसंघ घटक के जनप्रतिनिधि शाखा में न आवें| नागपुर मे अ.भा. प्रतिनिधि सभा मे भी यह सुझाव आया| उस समय महाराष्ट्र प्रांत संघचालक बाबा भिड़ेजी एवं दत्तोपंत जी ने दृढ विरोध किया कि किसी भी स्वयंसेवक को शाखा जाने से मना करने का आदेश नही दिया जा सकता| उस समय सरसंघचालक माननीय बाला साहब देवरस ने बात को वही रोक देने को कहा और बात वही की वही रह गई|
दत्तोपंतजी कम्युनिस्ट नेताओं, एस. ए डांगे., बाली देशपांडे, एके गोपालन, बीटी रणदिबे, पी. राममूर्ति सरीखे नेताओं के जीवन मे आदर्शवाद की प्रशंसा भी किया करते थे|
आपातकाल मे ये सारे संबंध काम आये| दात्तोपंतजी ने अंडरग्राउंड रूप से देश भर प्रवास किया और संतवाणी का उल्लेख करते हुए कहा कि आपातकाल का संकट अधिकाधिक 2 वर्ष में समाप्त होगा| ऐसा ही हुआ भी| वे भगवान् दत्तात्रेय के उपासक भी थे|
एक बार उन्होने नेताओं को चार श्रेणियों मे बाँटकर समझाया था जो ध्यान रखने लायक है|
उन्होंने कहा – कुछ होते है डॉ. हेडगेवार जैसे PURELY A NATION BUILDER. दुसरे होते हैं महात्मा गाँधी जैसे जो ESSENTIALLY A NATION BUILDER AND INCIDENTALLY A POLITICIAN, *तीसरी श्रेणी मे आते है पं. जवाहर लाल नेहरु जो ESSENTIALLY A POLITICIAN AND INCIDENTALLY A NATION BUILDER, और चौथी श्रेणी में रखा
जा सकता है श्रीमती इंदिरा गाँधी OUT AND OUT A POLITICIAN. इसका मतलब यह नही है कि पोलिटीशियन् तिरस्कार योग्य हैं| नहीं, उनके द्वारा भी बहुत अच्छे काम हो सकते है, उतने ही नुकसायदायक काम भी हो सकते है| इसलिये राजसत्ता पर सामाजिक अंकुश जरुरी होता है| माननीय दत्तोपंत ठेंगडी जी महामनीषि थे| इस समय वे होते तो 100 वर्ष के हुए होते| सन् 2003 में स्व.जा.मंच की एक बैठक में उन्होने कहा था:
स्वस्थ संगठन में स्वस्थ कार्यपद्धति चलेगी, अस्वस्थ संगठन में स्वस्थ कार्यपद्धति की सीमाएँ हैं| आगे की आवश्यकता सूत्र है लिख लो काम आयेगा :
AT TIMES IT IS BETTER TO BE RIGHT AND IRRESPONSIBLE THAN WRONG AND RESPONSIBLE.