बिहार विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है और पहले चरण की 71 सीटों के लिए नामांकन का दौर भी एक अक्टूबर से शुरू हो रहा है. इसके बावजूद नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए में सीट शेयरिंग को लेकर सहमति नहीं बन पा रही है. एलजेपी प्रमुख चिराग पासवान ने 42 सीटों की दावेदारी करते हुए कहा कि इससे कम सीटों पर एनडीए से नाता तोड़कर अलग चुनाव लड़ सकते हैं.
हालांकि, एनडीए में फिलहाल एलजेपी को 25 से 30 सीटें ही मिलने की संभावना है. ऐसे में चिराग के सामने एनडीए से बाहर होकर अपने पिता रामविलास पासवान की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की चुनौती है. चिराग बिहार को रौशन करेंगे या नहीं ये देखना दिलचस्प होगा.
चिराग पासवान की बीजेपी से डिमांड
दरअसल, एलजेपी 2015 की तरह ही इस बार भी 42 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा कर रही है. एलजेपी की दलील है कि 2014 में वो 7 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ी थी तो उन्हें एक लोकसभा सीट के अनुपात से 6 विधानसभा सीट मिली थी. 2019 लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने 6 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा था और उन्हें एक राज्यसभा सीट मिली थी. इस लिहाज से एलजेपी को इस चुनाव में भी 42 सीटें मिलनी चाहिए.
हालांकि, 42 सीटें न मिलने की हालत में एलजेपी अध्यक्ष चिराग पासवान ने बीजेपी के सामने नया फॉर्मूला रखा है. एलजेपी को 33 विधानसभा सीटों के साथ बिहार में राज्यपाल द्वारा मनोनीत होने वाले 12 एमएलसी में से दो सीटें चाहिए. इसके अलावा अक्टूबर के अंत में उत्तर प्रदेश में होने वाले राज्यसभा चुनाव में एक राज्य सभा सीट की डिमांड भी एलजेपी रख रही है. चिराग ने बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को एक दूसरा फॉर्मूला भी दिया है. इसके तहत अगर उन्हें राज्यसभा की सीट नहीं दी जाती है तो बिहार में एनडीए सरकार बनने पर बीजेपी के साथ-साथ एलजेपी से चिराग पासवान को उपमुख्यमंत्री बनाया जाए.
एलजेपी की काट में जेडीयू का दलित दांव
एलजेपी बिहार में 2015 के चुनाव में 42 विधानसभा सीटों पर चुनावी मैदान में उतरकर महज दो सीटें ही जीत सकी थी. अब एलजेपी ने बीजेपी के सामने जो शर्तें रखी हैं, उन्हें एनडीए में अमलीजामा पहनाना मुश्किल लग रहा है. ऐसे में चिराग पासवान अपनी अलग सियासी राह भी तलाश रहे हैं. हालांकि, चिराग के तेवर को देखते हुए नीतीश कुमार भी अपने राजनीतिक समीकरण को मजबूत करने की कवायद लगातार कर रहे हैं, जिसके तहत रविवार को उन्होंने महादलित समुदाय से आने वाले अशोक चौधरी को बिहार के जेडीयू का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया है.
रामविलास पासवान की राजनीति
एलजेपी के संस्थापक रामविलास पासवान भारत के सबसे बुज़ुर्ग दलित नेताओं में से एक हैं. वह चुनावी राजनीति में 1969 में आए थे. 1977 में उन्होंने लोकसभा चुनाव में सबसे ज़्यादा मतों से जीत हासिल करने का वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया था. 1986 में जगजीवन राम की मृत्यु के बाद वह उत्तर भारत में दलितों के सबसे बड़े नेता थे. कांशीराम और मायावती तो पासवान की तुलना में 15 साल बाद राजनीति में आए थे. इसके बाद भी रामविलास पासवान बिहार में दलितों के बजाय दुसाध समुदाय के नेता बनकर रह गए.
2005 में एलजेपी किंगमेकर थी
साल 2000 में रामविलास पासवान ने जनता दल से अलग होकर एलजेपी का गठन किया और फरवरी 2005 में किंगमेकर बनकर उभरे थे. बिहार के सत्ता की चाबी रामविलास पासवान के पास थी, लेकिन उस ताकत का इस्तेमाल नहीं कर सके और चाबी को कुएं में भेंट कर आए थे. बिहार में राष्ट्रपति शासन लगा और अक्टूबर 2005 में फिर चुनाव हुए और फिर राज्य में पार्टी दोबारा से वैसा प्रदर्शन नहीं कर सकी. अब एलजेपी की कमान चिराग पासवान के हाथों में है.
बिहार में पांच फीसदी दुसाध समुदाय
बता दें कि बिहार की कुल आबादी में अनुसूचित जातियों से जुड़े लोगों की आबादी तकरीबन 16 फीसदी है. अनुसूचित जाति की तकरीबन 93 फीसदी आबादी गांवों में रहती है. बिहार में 23 जातियां अनुसूचित जातियों की कैटगरी में आती हैं. बिहार में अब कोई दलित नहीं है क्योंकि नीतीश कुमार की सरकार ने अपने शासन काल में अनुसूचित जाति के सभी 23 वर्गों को महादलित की श्रेणी में रख दिया है. बिहार में चमार जाति की हिस्सेदारी तकरीबन 31 फीसदी है और अनुसूचित जातियों का दूसरा बड़ा समूह दुसाध समुदाय का है, जिस समुदाय से चिराग पासवान आते हैं.
एलजेपी की मजबूती पांच फीसदी दुसाध मतदाता हैं. पिछले कुछ चुनावों के आंकड़े देखें तो दुसाध समुदाय के करीब 80 फीसदी वोट रामविलास की पार्टी को ही मिले हैं. एलजेपी को 2014 के लोकसभा चुनाव में 6.4 और 2019 में 7.86 फीसदी मत मिले थे जबकि 2015 के चुनाव में 4.8 फीसदी रहा. वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन कहते हैं कि पासवान जाति की बात करें तो बिहार में तकरीबन पांच फीसदी के करीब वोट बैंक वाली इस जाति के सर्वमान्य नेता रामविलास पासवान रहे हैं.
पासवान समुदाय के 11 विधायक
बिहार विधानसभा में कुल 38 आरक्षित सीटें हैं. 2015 में आरजेडी ने सबसे ज्यादा 14 दलित सीटों पर जीत दर्ज की थी. जबकि, जेडीयू को 10, कांग्रेस को 5, बीजेपी को 5 और बाकी चार सीटें अन्य दलों को मिली थीं. इसमें 13 सीटें रविदास समुदाय के नेता जीते थे जबकि 11 पर पासवान समुदाय से आने वाले नेताओं ने कब्जा जमाया था. 2005 में JDU को 15 सीटें मिली थीं और 2010 में 19 सीटें जीती थीं. बीजेपी के खाते में 2005 में 12 सीटें आई थीं और 2010 में उसने 18 सीटें जीती थीं. आरजेडी को 2005 में 6 सीटें मिली थीं जो 2010 में घटकर एक रह गई थी. 2005 में 2 सीट जीतने वाली एलजेपी ने तो 2010 में इन सीटों पर खाता तक नहीं खोला और कांग्रेस का भी यही हाल था.