केएन गोविंदाचार्य।
पिछले दो, ढाई सौ वर्ष पहले भी भारत दुनिया में आर्थिक दृष्टिसे सबसे धनी समाज रहा है| जो कुछ भी बर्बादी हुई है वह पिछले 250 वर्षों की दुखद कहानी है| आर्थिक विकास में सामाजिक पूंजी और सांस्कृतिक परम्परा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है| सांस्कृतिक परम्परा में जीवन दृष्टि, विश्व दृष्टि और जीवन दर्शन का विशेष स्थान होता है|
भारतमे सामान्य जन यह समझ रखता है कि सृष्टि भगवान है, भूमि गोपाल है| चराचर जगत में भगवान व्याप्त है| हर कुछ यहाँ तक कि मनुष्य भी भगवान का है| सृष्टिकेवल मनुष्य की या मनुष्य के लिये नही है| मनुष्य इस सृष्टि में मालिक नही मेहमान है| ऐसे में घर को ठीक रखना उसका फर्ज है| सृष्टि का सब कुछ मनुष्य के सुखोपयोग के लिये नही बनाया गया है|
इस समझ में यह निहित है कि मनुष्य इस सृष्टि का ट्रस्टी है| या भगवान् अगर मालिक तो मनुष्य मैनेजर है, मालिक नहीं| मालिक के प्रतिष्ठान को और अच्छा बनाना उसका कर्तव्य है, वह मुनाफे का नही, पूंजी का नही, केवल वेतन का हकदार है| मालिक की संपत्ति का उपभोग फिजूलखर्ची या बर्बादी उसके लिये गुनाह है|
इसलिये कम से कम मे काम चलावे यह मनुष्य के सहज स्वभाव मे आया| #साधनोंकीबर्बादी न हो, प्रकृति अधिक जीवंत समृद्ध रहे, जमीन, जल, जंगल, जानवर की संभाल हो, बर्बाद न हो, संपोषण हो, बचत हो, वंचित, भूखा, बीमार कोई न हो मालिक के दरबार में| मालिक का कारोबार है सर्वत्र सुख, शान्ति, आनन्द की वर्षा हो, सुगंध हो| तभी तो मैनेजर से मालिक भी खुश रहे| #प्रकृतिकासंपोषण ही विकास का सही अर्थ है या सही रास्ता है|
#भारतीय_समाज अबाध इस समझ को अभिवृद्ध भी करता गया है| शिक्षा, संस्कार की परंपरा, व्यवस्था भी इस सत्य को समझकर गढ़ी गई| तदनुसार #राज्यव्यवस्था, #अर्थव्यवस्था गढ़ने का प्रयास हुआ|
भारत मे सुर, #असुर_धातु की समझ रही| जमीन के ऊपर है सुर धातु, जमीन के नीचे है असुर धातु| यह समझ बनी कि सुर धातु #जमीन, जल, जंगल, जानवर आदि का आवश्यकतानुसार भरपूर उपयोग हो| असुर धातु का सावधानी से, पथ्य पालते हुए उपयोग हो| उसी प्रकार समाज की संरचना मे भी #व्यक्ति, परिवार, खानदान, कूल-कुटुंब, परिवार, परिकी, परिजन, ग्राम, इलाका, क्षेत्र, देश, दुनिया, सृष्टि, समष्टि और परमेष्टि तक की अखंड मंडलाकार (स्पाइरल) समझ, भावना, रचना बन सकी|
#परिवार, समाज की मूलभूत इकाई, जिसने अपने नही अपनों की चिंता स्वभाव बन जाय ऐसी कोशिश और इंतजाम हुए|
#परिवार, #प्रकृति, #पड़ोस, #पहाड़, #पेड़, #पानी, #पशु-पक्षी आदि के साथ एकात्म आत्मीय संवेदनशील भाव के अनुसार सहज स्वभाव बन जाय ऐसी कोशिश हुई| मनुष्य का जीवन या #जीवनमूल्य, #जीवनादर्श, #जीवनशैली इसके अनुकूल बनी|
इस व्यवस्था मे अधिकतम उत्पादन, समुचित वितरण और संयमित उपभोग की त्रिसूत्री बनाई जा सकी| फिजूलखर्ची के स्थान पर साधनों के रख-रखाव संभाल की चिन्ता पर जोर रहा| कोई भी वस्तु अनुपयोगी नही हैं, बर्बादी से पाप लगेगा आदि मान्यताएँ रूढ़ हुई|
इन सबमे प्रकृति और उसकी एक श्रेष्ठ उत्पति गोमाता, गंगा मैया की मातृवत दृष्टि बनी| फलतः कृषि, गोपालन, वाणिज्य की त्रिसूत्री पर जोर रहा| #अधिक_उत्पादन, समुचित वितरण, और संयमित उपभोग, अभौतिक जीवनमूल्यों पर आधारित समाज-व्यवस्था के कारण सरप्लस, बचत आदि होता गया| आमदनी ज्यादा, खर्च कम की स्थिति बनी| इसमे साधन, प्रकृति, जन किसी का शोषण अभीष्ट नही थी| वह सब दंडनीय पाप था| फलतः भारत सोने की चिड़िया कहलाने लगा|
इन सब स्थितियों के कारण दो हजार पूर्व तक व्यवस्थाएँ चली| समय-समय पर इन व्यवस्थाओं को चलाये रखने के लिये अलग-अलग स्मृतियों का विधान भी हुआ| अर्थ के प्रभाव से भारत अछूता न रहा| प्रमाद, आलस्य का शिकार समाज होने लगा| फलतः #स्मृतिभ्रंश, विभ्रम, #सदगुणविकृति आदि का समाज शिकार होता गया|
पिछले 2000 वर्षों मे 1500 ईस्वी तक समाज उतना क्षत-विक्षत नही हुआ जितना पिछले 500 वर्षों में, या पिछले 250 वर्षों मे|आलस्य, प्रमाद, जड़ता का परिणाम भीषण रूप से समाज और सत्ता पर हुए| आगे की अगली बार|