नई दिल्ली। अंग्रेजों ने भारत में दो सौ सालों तक राज किया. लेकिन अगर एक ऐसा गद्दार हुआ जिसके धोखे की वजह से अंग्रेजी हुकूमत ने पूरे मुल्क को गुलाम रखा. धोखा देने वाले उस शख्स का नाम था मीर जाफर.
उसने बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को ऐसा धोखा किया कि फिरंगियों को यहां जमने का मौका मिला. मीर जाफर का ये धोखा इतना जगतप्रसिद्ध धोखा साबित हुआ कि पीढ़ियों तक लोग अपने बच्चों का नाम मीर जाफर रखने में कतराते थे.
ये नाम गद्दारी और नमकहरामी का प्रतीक बन गया था. आइए जानें- दो जुलाई के इस काले दिन की कहानी…
ये घटना है 2 जुलाई 1757 की, जब नवाब सिराजुदौला को एक गद्दार सेनापति की धोखाधड़ी की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी थी. इतिहास में नवाब सिराजुद्दौला को आखिरी आजाद नवाब कहा जाता है. नवाब की जान जाते ही भारतीय उपमहाद्वीप में अंग्रेजी शासन की नींव रखी गई. नवाब का पूरा नाम मिर्ज़ा मुहम्मद सिराजुद्दौला था. 1733 में पैदा हुए नवाब की अपनी मौत के वक्त महज 24 साल की उम्र थी. अपनी मौत से साल भर पहले ही अपने नाना की मौत के बाद उन्होंने बंगाल की गद्दी संभाली थी. उसी वक्त अंग्रेजों ने उपमहाद्वीप में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की थी.
सिराजुद्दौला को काफी कम उम्र में नवाब बनाया गया था. इसकी वजह से उनके कई रिश्तेदार खफा थे. खास तौर पर उनकी खाला घसीटी बेगम काफी नाराज थी. उन्होंने सिराजुद्दौला के नवाब बनने के थोड़े ही समय बाद उन्हें कैद करवा दिया था. इसके बाद वो बरसों से बंगाल के सेनापति रहे मीर जाफर की जगह मीर मदान को तरजीह दी. इससे मीर जाफर नवाब से बुरी तरह खफ़ा हो गया. अंग्रेजों के सामने अपनी जगह बनाने के लिए मीर जाफर नवाब सिराजुद्दौला को बहुत बड़ा रोड़ा मान रहा था.
उन्होंने इस बात की संभावना तलाशनी शुरू की कि क्या वाकई हमारे बीच गद्दार है? उस दौरान अंग्रेजी सेना के सेनापति रॉबर्ट क्लाइव थे. क्लाइव ने कुछ जासूस बंगाल भेजे. उन्होंने बताया कि मीर जाफर में काफी संभावनाएं हैं. मीर जाफर बंगाल का नवाब बनने का सपना संजोए बैठा था. क्लाइव ने उससे संपर्क साधा. खतोकिताबत शुरू हुई. साजिश परवान चढ़ने लगी.
फिर वो दौर भी जब अंग्रेजी हुकूमत ने बंगाल पर हमला बोल दिया. इतिहास में इसे प्लासी की लड़ाई कहा जाता है. सिराजुद्दौला अपनी पूरी फौज को अंग्रेजों के खिलाफ नहीं झोंक सकते थे. उन्हें उत्तर से अफगानी शासक अहमद शाह दुर्रानी और पश्चिम से मराठों का खतरा हमेशा बना रहता था. फौज के एक हिस्से के साथ वो प्लासी पहुंचे. मुर्शिदाबाद से कोई 27 मील दूर डेरा डाला. 23 जून को एक मुठभेड़ में सिराजुद्दौला के विश्वासपात्र मीर मदान की मौत हो गई. नवाब ने सलाह के लिए मीर जाफर को पैगाम भेजा. मीर जाफर ने सलाह दी कि युद्ध रोक दिया जाए. नवाब ने मीर जाफर की सलाह मानने का ब्लंडर कर दिया.
उसी समय लड़ाई रोकी गई और नवाब की फौज वापस कैंप लौटने लगी. मीर जाफर ने रॉबर्ट क्लाइव को स्थिति समझा दी और उसके बाद क्लाइव ने पूरी ताकत से हमला बोल दिया. अचानक हुए हमले से सिराज की सेना बौखला गई. तितर-बितर होकर बिखर गई. क्लाइव ने लड़ाई जीत ली. नवाब सिराजुद्दौला को भाग जाना पड़ा. मीर जाफर उसी वक्त अंग्रेज कमांडर से जाकर मिला. एग्रीमेंट के मुताबिक उसे बंगाल का नवाब बना दिया गया. और फिर इसी तरह सत्ता अंग्रेजों के हाथ लग चुकी थी.
फिर प्लासी की लड़ाई से भागकर नवाब सिराजुद्दौला ज़्यादा दिन आजाद नहीं रह सके. उन्हें पटना में मीर जाफर के सिपाहियों ने पकड़ लिया. उन्हें मुर्शिदाबाद लाया गया. मीर जाफर के बेटे मीर मीरन ने उन्हें जान से मारने का हुक्म दिया. 2 जुलाई 1757 को उन्हें नमक हराम ड्योढ़ी नामक जगह में फांसी पर लटकाया गया. अगली सुबह, उनकी लाश को हाथी पर चढ़ाकर पूरे मुर्शिदाबाद शहर में परेड़ कराई गई. सत्ता की वो बाज़ी तो मीर जाफर जीत गया था. लेकिन इतिहास में उसका नाम विश्वासघाती के तौर पर दर्ज हो गया.