किसान शब्द सुनते ही मैली धोती पहने सांवले रंग के गरीब बुजुर्ग की छवि दिमाग में उभरती है लेकिन समस्तीपुर के किसान सुधांशु इससे बहुत अलग हैं. जींस पैंट, ब्रांडेड शर्ट, हाथ में स्मार्ट वॉच, स्मार्टफोन के साथ फर्राटेदार अंग्रेजी भी बोलते हैं. इन्हें बिहार का हाईफाई किसान कहें तो गलत नहीं होगा. टेक्नोलॉजी को खेती-किसानी में जोड़कर सुधांशु ने अगल पहचान बनाई है. ये आज की डेट में अपने मोबाइल से 40 बीघे में फैले खेत की सिंचाई कर सकते हैं. वहां लगे सीसीटीवी कैमरों से एक-एक पेड़-पौधे पर नजर रख सकते हैं. इनका पूरा फार्म एरिया वायरलेस नेटवर्किंग से जुड़ा है जहां ब्रॉडबैंड की भी सुविधा है.
हिमांशु ने बताया कि पिताजी और दादाजी दोनों ही सम्पन्न किसान रहे. वो भी अपने दौर में तकनीकी का अच्छा इस्तेमाल किया करते थे. उनकी इच्छा थी कि मैं आईएएस बनूं लेकिन मेरा अपने गांव से कुछ ज्यादा लगाव था.
यही वजह थी कि दार्जलिंग के सेंट पॉल स्कूल से 12वीं और दिल्ली यूनिवर्सिटी के हंसराज कॉलेज के पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद मुन्नार में टाटा टी बागान में लगी असिस्टेंट मैनेजर की नौकरी छोड़ मैं गांव आ गया. मेरा छोटा भाई हिमांशु भी ऑफिसर्स ट्रेनिंग अकादमी की नौकरी छोड़ मुझसे एक साल पहले ही गांव आ चुका था. हम दोनों ने पैतृक खेती-किसानी के अपने काम को आगे बढ़ाने का फैसला किया.
इनकी खेती से जुड़ी टेक्नोलॉजी देख सभी अचरज में पड़ जाते हैं. यहां आकर पता चला कि सुधांशु के आम, अमरूद, लीची, केला, जामुन आदि के कई बाग हैं. खास ये है कि हर बाग के हर एक पेड़ के लिए उसका व्यक्तिगत सिंचाई का सिस्टम लगा हुआ है. अकेले केले के बाग में ही 28 हजार पेड़ हैं जिसमें हर एक की सिंचाई के लिए इंडीपेंडेंट सिस्टम जो पूरी तरह से कम्प्यूटराइज्ड और ऑटोमैटिक है.
पूरे सिस्टम का कंट्रोल करने वाले लैपटॉप को सिर्फ इतनी सूचना देनी है कि पेड़ों को कितना पानी देना है, कितनी देर तक देना है, उसमें खाद, दवा, कीटनाशक मिक्स करना है या नहीं, यदि मिक्स करना है तो कितनी मात्रा में करना है. ये सूचना सुधांशु अपने मोबाइल से भी लैपटॉप तक पहुंचा देते हैं. इसके बाद सबकुछ बैठे-बैठे हो जाता है.
सुधांशु ने अपनी फार्मिंग के लिए खेतों के बीच एक सेंट्रल कंट्रोल रूम भी बना रखा है. 2019 में इसका उद्घाटन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने किया था. इस सेंटर में खाद, दवा, कीटनाशक की वाटर सप्लाई में ऑटोमैटिक मिक्सिंग होती है. यदि पूरे बागीचे में सिर्फ एक ही पेड़ को कोई खास दवा देनी हो तो वो भी यहां संभव है. खेत में जाने की जरूरत भी नहीं. हर कहीं सीसीटीवी कैमरे हैं जिनसे एक-एक पेड़ पौधे पर नजर रखी जा सकती है. सुधांशु ने बताया कि ये सब सिर्फ टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से संभव हुआ.
खेती की इस सफलता के लिए सुधांशु माइक्रो-इरीगेशन सिस्टम को वरदान मानते हैं. कहते हैं इसे बोलचाल की भाषा में सिंचाई की टपकन विधि बोलते हैं जिसमें पौधे को पानी बूंद बूंद करके दिया जाता है. खेत या बागीचे में नमी को इससे कंट्रोल किया जा सकता है. लीची की खेती के लिए आवश्यक नमी को वह इस विधि से आसानी से हासिल कर लेते हैं.
इससे पारम्परिक खेती में इस्तेमाल होने वाली पानी की खपत को एक तिहाई कम किया जा सकता है, जो आज वक्त की मांग भी है. इसे छोटी जोत के किसान भी लगा सकते हैं. सरकार इसके लिए 80 प्रतिशत तक सब्सिडी देती है. सब्सिडी के लिए थोड़ी दौड़-भाग करनी होती है.
बीते 31 साल की मेहनत में सुधांशु ने अपने टोटल टर्नओवर को 25,000 रुपये से 80 लाख रुपये तक पहुंचा दिया है. अगले पांच साल में इसे दो करोड़ तक ले जाने की योजना है. पहले ही साल में उन्होंने सिर्फ आम के बगीचे से आमदगी को 25 हजार से 1.35 लाख कर लिया था. इसमें सिर्फ और सिर्फ तकनीकी को योगदान था. सुधांशु का अपना मत है कि किसानों को गेहूं, धान, मक्का से ऊपर उठकर बागवानी की तरफ आना चाहिए तभी वह मुनाफा कमा सकते हैं. कम से कम अपनी कुल खेती के तीन हिस्से पर उन्हें बागवानी और फलों के लिए काम करना चाहिए.
सुधांशु को उनकी उपलब्धि के लिए 2009 में देश के प्रतिष्ठित कृषक सम्मान जगजीवन राम किसान पुरस्कार मिल चुका है. वह इंटरनेशनल संस्था ग्लोबल फार्मर नेटवर्क के सदस्य भी हैं. इंटरनेशनल फेलोशिप भी प्राप्त कर चुके हैं. क्षेत्र में इतना सम्मान मिला है कि लगातार चौथी बार प्रधान हैं. स्थानीय किसान उनसे सीखने और जानकारी लेने आते हैं. हर साल बिहार और दूसरे राज्यों के 1200-1300 लोग उनके यहां फील्ड विजिट पर आते हैं.