नई दिल्ली। हिमाचल के हरितल्यांगर में 91 लाख वर्ष पुराने छिपकलियों और सांपों के जीवाश्म अवशेषों को खोजा गया है। वैज्ञानिकों ने इन अवशेषों से हिमाचल प्रदेश के हरितल्यांगर में उत्तरार्धकाल के मियोसीन होमिनिड इलाके की जलवायु की जानकारी जुटाई है। छिपकलियों और सांपों के जीवाश्म अवशेषों से अनुमान लगाया गया है कि हिमाचल के हरितल्यांगर में लगभग 15-18.6 डिग्री सेल्सियस के औसत वार्षिक तापमान हुआ करता था। इसके साथ क्षेत्र में एक मौसमी आर्द्र उप-शुष्क जलवायु का संकेत देती हैं।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी, भारत सरकार) के एक स्वायत्त संस्थान वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (डब्ल्यूआईएचजी), देहरादून, पंजाब विश्वविद्यालय (पीयू) चंडीगढ़, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान रोपड़ (आईआईटी रोपड़) रूपनगर, पंजाब और ब्रातिस्लावा में कोमेनियस विश्वविद्यालय, स्लोवाकिया के शोधकर्ताओं के सहयोग से पहली बार इस क्षेत्र से टैक्सा– वरानस, पायथन, एक अहानिकर (कोलब्रिड) और एक नैट्रिकिड सर्प का दस्तावेजीकरण किया गया है।
उल्लेखनीय है कि छिपकली और सांप ठंडे रक्त के शल्क-वाले सरीसृप (रेप्टाइल्स) अर्थात स्क्वामेट हैं जिनका क्षेत्र में वितरण, प्रचुरता तापमान एवं जलवायु जन्य परिस्थितियों पर अत्यधिक निर्भर है। इस कारण से, शल्क-वाले सरीसृप (रेप्टाइल्स) को व्यापक रूप से पिछली जलवायु, विशेष रूप से परिवेश के तापमान के उत्कृष्ट संकेतक के रूप में चिन्हित किया जाता है।
हरितल्यांगर में टैक्सा वरानुस की उपस्थिति इसके पिछले जैव विविधता के संबंध में महत्वपूर्ण है क्योंकि एशिया में वैरनाइड्स का एक सीमित जीवाश्म रिकॉर्ड है। इसके अलावा, पाकिस्तान (तिथिक्रम लगभग 18 एमए) और कच्छ, गुजरात (तिथिक्रम लगभग 14-10 एमए) के शुरुआती रिकॉर्ड को छोड़कर, दक्षिण एशिया से जीवाश्म अजगर (पायथन) की उपलब्धि खराब बनी हुई है। दो प्रतिष्ठित स्क्वामेट्स- वरानस और पायथन के सह-अस्तित्व ने इस दक्षिणी एशियाई क्षेत्र में इस जीवशाखा (क्लैड) के व्यापक वितरण का पता चला है।
डॉ. निंगथौजम प्रेमजीत सिंह ने वाडिया इंस्टीटयूट ऑफ़ हिमालयन जियोलॉजी (डब्ल्यूआईएचजी) के डॉ. रमेश कुमार सहगल और अभिषेक प्रताप सिंह, पंजाब विश्वविद्यालय (पीयू) से डॉ. राजीव पटनायक, डॉ. केवल कृष्ण और शुभम दीप, आई.आई.टी. रोपड से डॉ. नवीन कुमार, पीयूष उनियाल एवं सरोज कुमार और कोमेनियस विश्वविद्यालय से डॉ. आंद्रेज सेरनस्की के साथ इस अध्ययन का नेतृत्व किया। इसे नवंबर 2022 में जियोबिओस जर्नल में प्रकाशित किया गया।